प्रकृति से पार पाने की मानव की कोशिश

nature and human

Article by Dr. Satinder Maken

मैंने कुछ कहानिया पढ़ी सोशल मीडिया पर जिसमे कि कल्पना की गयी है कि आज से कुछ सालों बाद हमे ऑक्सीजन मास्क पहन के रहना होगा | अपने घर और बिल्डिंगस ऐसे बनाने होंगे जहाँ ऑक्सीजन की आपूर्ति पाइप्स से की जाएगी | नए अंग आर्डर करने पड़ेंगे ट्रांसप्लांट के लिए  अदि इतियादी | पढ़ कर बड़ी हंसी आयी | इंसान किस गलतफहमी में जी रहा है मैं आश्चर्यचकित हूँ | आपको क्या लगता है जब धरती पर ओजोन परत नष्ट हो जाएगी, तापमान बढ़ जायेगा, ग्लेशियर पिघल जायेंगे, समुन्दर लेवल बढ़ जायेगा, वातावरण में पराबैंगनी किरणे फ़ैल जाएँगी, तो क्या इंसान टेक्नोलॉजी के दम पर जीवित रहेगा | बड़ी हंसी वाली बात है |

इंसान की सोच है कि वो प्रकृति को नष्ट कर देगा लेकिन फिर भी वो टेक्नोलॉजी के सहारे जी लेगा | ऑक्सीजन सिलिंडर बना लेगा , शरीर के जो अंग ख़राब हो जायेंगे वो नए बना लेगा और बदल लेगा | खाने के कैप्सूल बना लेगा | पानी का विकल्प ढून्ढ लेगा | हो सकता है भविष्य में टेक्नोलॉजी इतनी विकसित हो भी जाये कि ये सब संभव हो जाये पर क्या ये सब टेक्नोलॉजी दुनिया की पूरी आबादी तक पहुँच में होंगी | आज जब दुनिया की पूरी आबादी को आवश्यकता के अनुसार खाना नहीं उपलब्ध है पीने के लिए साफ़ पानी नहीं है रोज़गार के अवसर नहीं है आधारभूत मेडिकल सुविधाएं नहीं है  जीने की आधारभूत साधन उपलब्ध नहीं है ऐसे में कैसे हर जिन्दा आदमी टेक्नोलॉजी को जुटाने में कैसे समर्थ होगा | इसलिए ये सोचना कि टेक्नोलॉजी हमे बचा लेगी बड़ी ही मूर्खतापूर्ण बात है

सच्चाई ये है कि कोई भी प्रकृति से जीत नहीं सकता | प्रकृति से खिलवाड़ करके इंसान ये सोचे कि मेरा अस्तित्व बच जायेगा तो ये एक बड़ी मूर्खतापूर्ण सोच है एक गलतफहमी है एक खुशफहमी है खुद को झूठा आश्वासन देने वाली बात है

जैसे एक हाथी सो रहा हो जमीन पर लेटा हुआ और मान लो बेहोश है किसी कारणवश तो जंगल के छोटे मोटे जीव जैसे चूहे इतियादी उसके ऊपर उद्दम मचने लगे, और सोचने लगे कि हमने पहाड़ जैसे जीव पर विजय पा ली हम इसके ऊपर कुछ भी करें लेकिन फिर हाथी को होश आ जाये वो सब झाड़ कर खड़ा हो जाये  तो क्या होगा | बस जिस दिन इस धरती को होश आयी और उसने अपने को एक दो इंच भी हिला दिया तो कहीं भूकंप तो कही जलजला सब हिल जायेगा | और ये इंसान जब तक कुछ समझेगा सब खेल खत्म | इस प्रकृति के लिए सभी जीव एक जैसे है जैसे एक चींटियों का टीला हो या इंसानो की बस्ती; जब जलजला आता है तो दोनों को ही बहा कर ले जाता है प्रकृति दोनों में कोई भेद नहीं करती | ये जो मानव स्वयं को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना बताता है ये स्व घोषित है कभी हमने दूसरे जीवो से पूछा कि क्या वो मानव सर्वश्रेष्ठ रचना मानते है या शेरों ने हमसे कहा कि तुम ही हो प्रभु की सर्वश्रेष्ठ रचना, ये जो खुशफहमियाँ हम इंसानो ने पाल रखी है ये ही मरवायेगी हम इंसानो को | और फिर यदि इंसान ही परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है तो उसमे भी एक घुमाव है कि इंसानो में भी कौन सा इंसान सर्वश्रेषठ है किसी खास धर्म का इंसान, या फिर किसी अमुक जाति का इंसान या फिर पृथ्वी के किसी अमुक हिस्से में रहने वाला इंसान | ये जो श्रेष्ठता  की लड़ाई है इसमें इंसान अपनी ही नस्ल को खत्म करने के उपाय कर रहा है परमाणु हथियार बना कर, मिसाइल बना कर, जैविक हथियार बनाकर, हवा, पानी, मिट्टी को प्रदूषित करके, पेड़ काट कर, प्रकृति को नष्ट करके हम अपनी कब्रे खुद ही खोद रहे है

कई बार विज्ञापनों में दिखाया जाता है या कुछ संस्थाओं द्वारा प्रचारित किया जाता है कि पेड़ लगाए धरती को बचाएं तो उनके लिए सूचना है कि इंसान की औकात नहीं है धरती को बचाने की या नष्ट करने की | अगर बचाने की बात है तो खुद के वजूद को बचा ले धरती तो बचा ही लेगी खुद को | प्रकृति का क्या है वो जानती है खुद को संतुलित करना | जो भी इंसान ने बनाया है जिस से प्रदूषण हुआ है वो इसी से बना है इसी में ही समा जायेगा | चाहे वो प्लास्टिक हो या कोई केमिकल्स, प्रकृति सब पचा जाएगी | इंसान इस धरती पर नहीं रहेगा तो एक अंतराल के बाद सब कुछ फिर से संतुलित हो जायेगा जो कि परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ  रचना यानी कि हम इंसानो की वजह से असंतुलित हुआ है | खतरा धरती को नहीं है खतरा मनुष्य जाति को है | अभी भी समय है इंसान यदि अभी भी समझ जाये तो हो सकता है इसका कोई वजूद बच जाये, नहीं तो प्रकृति सब जानती है कि इसे क्या करना है |

प्रकृति से पार पाने की मानव की कोशिश में हार सिर्फ और सिर्फ मानव की है क्योँकि प्रकृति तो किसी दौड़ में है ही नहीं वो तो स्वावलम्बी है वो जानती है कि  स्वयं को संतुलित कैसे करना है तो हे तथाकथित सर्वश्रेष्ठ इंसानो को ही अपना वजूद बचाना है जो करना है अपने लिए ही करना है |

इस लेख के जरिये सिर्फ यही सन्देश है कि हम संभल जाये और प्रकृति में हस्तक्षेप न करें | यही हमारी मानव जाति के लिए तथा हमारी आने वाली नस्लों के लिए भी उपयुक्त रहेगा |

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2 thoughts on “प्रकृति से पार पाने की मानव की कोशिश

  1. आप बिलकुल सही कह रहे हैं। कभी-कभी इंसान भूल जाता है कि उसका अस्तित्व धरती पर निर्भर है। हम एक विशाल पारिस्थितिकी तंत्र का एक छोटा सा हिस्सा मात्र हैं।

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