Article By Dr. Mamta Sharma
हर साल जब माँ दुर्गा का आगमन होता है, तो लगता है जैसे कोई भूली-बिसरी शक्ति हमारे भीतर फिर से सांस लेने लगी हो। हम दीप जलाते हैं, मंत्र पढ़ते हैं, मूर्तियाँ सजाते हैं। पर क्या कभी ध्यान दिया है ये रूप, ये स्वरूप, कहीं न कहीं हमारे आसपास की हर स्त्री में हर दिन जीते हैं?
कभी किसी बेटी को देखिए जो पहली बार घर से दूर जाती है। आँखों में डर भी है और एक अजीब-सी ठान भी कि कुछ बनाना है। भीतर कुछ टूटता है, लेकिन बाहर कुछ बहुत मजबूत दिखता है। उसका अकेले चलना किसी पर्वत की बेटी के जैसे लगता है, जो अपने जड़ों से जुड़ी है लेकिन ऊँचाइयों को छूना जानती है। और ये सफर केवल बाहरी नहीं होता भीतर बहुत कुछ बदलता है। वह खुद को खोजती है, बनाती है और खुद से ही जुड़ती है।
फिर वह दौर आता है जब एक स्त्री कुछ बड़ा करने के लिए खुद को समर्पित करती है। यह समर्पण सिर्फ प्रेम या परिवार के लिए नहीं होता, कभी-कभी अपने सपनों के लिए भी होता है। वह अपने आराम, अपनी इच्छाओं, यहाँ तक कि अपनी ज़रूरतों को भी किनारे रख देती है। किसी को कहे बिना, वह एक ऐसी तपस्या करती है जो बाहर से नहीं दिखती, पर भीतर बहुत कुछ गढ़ती है।
उसके बाद जीवन में ऐसा समय भी आता है जब उसे संतुलन साधना होता है। वह एक साथ कई भूमिकाएँ निभाती है कहीं माँ, कहीं कर्मचारी, कहीं दोस्त, कहीं बेटी। हर कोई चाहता है कि वह उसके लिए समय निकाले, मुस्कराए, समझे। वह थकती भी है, पर थमती नहीं। कई बार तो ऐसा होता है कि वह खुद को भूल जाती है, पर किसी और की तकलीफ को नहीं भूल पाती। उसकी चुप्पी में एक झंकार होती है, और उसकी मुस्कान में अनकहा संघर्ष।

फिर वह सृजन करने लगती है सिर्फ शारीरिक रूप से नहीं, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर भी। वह एक विचार को जन्म देती है, एक परिवार को आकार देती है, एक बच्चे की सोच को दिशा देती है। उसके भीतर एक ऐसी ऊर्जा होती है जो खाली जगहों को भरना जानती है। वह जहाँ होती है, वहाँ जीवन कुछ नया हो जाता है।
वह केवल रचयिता नहीं, रक्षक भी होती है। वह किसी को आगे बढ़ते हुए देखती है तो उसे थामती है, संभालती है। वह खुद पीड़ा में हो, तब भी किसी और को गिरने नहीं देती। उसकी परवाह में अधिकार नहीं, अपनापन होता है। वह बिना जताए, दूसरों के लिए खुद को रख देती है जैसे यह उसका स्वभाव हो।
लेकिन वह सिर्फ कोमल नहीं है। जब ज़रूरत हो, तो वह खड़ी हो जाती है आवाज़ के साथ, दृष्टि के साथ, और अपनी गरिमा के साथ। वह जब ‘ना’ कहती है, तो केवल शब्द नहीं कहती, अपनी सीमाएँ तय करती है। चाहे कोई रिश्ता हो, कोई व्यवस्था हो, या समाज की कोई पुरानी सोच वह झुकती नहीं। वह जानती है कि उसकी आत्मा की आवाज़ सबसे बड़ी होती है।
पर ऐसा नहीं कि वह हर समय अडिग रहती है। उसके भीतर भी एक रात उतरती है ऐसी रात जो बाहर से नहीं दिखती। वह अकेलेपन को महसूस करती है, अपने ही भीतर सवालों से लड़ती है, कई बार खुद से भी हार जाती है। लेकिन फिर भी, सुबह होते ही वह उठती है बच्चों को स्कूल भेजती है, ऑफिस जाती है, या बस फिर से एक बार दुनिया को मुस्कुराहट देती है। उसकी वह रात, उसकी सबसे बड़ी जीत होती है, क्योंकि वह उसे किसी से नहीं कहती फिर भी जीती है।
जीवन जब उसे समय देता है, तो वह ठहरती है। खुद को देखती है, समझती है। अब वह किसी से approval नहीं चाहती। वह जानती है कि वह जैसे भी है, पूरी है। उसने गलतियाँ की हैं, पर उनसे निकली भी है। वह अपनी थकान को भी प्रेम से देखती है, और अपनी खामोशियों को भी अपनाती है। उसकी आँखों में एक ठहराव होता है ऐसा ठहराव जो उम्र से नहीं, समझ से आता है।
और फिर, एक समय आता है जब वह सिर्फ खुद के लिए नहीं, औरों के लिए भी जीने लगती है। वह किसी को राह दिखाती है, किसी को आगे बढ़ने में मदद करती है। वह अनुभव से जानती है कि सबको कोई न कोई सहारा चाहिए होता है और वह खुद एक सहारा बन जाती है। वह किसी को बोलना सिखाती है, किसी को सुनना।
यहाँ वह देवी अपने संपूर्ण स्वरूप में प्रकट होती है वह रचती है, थामती है, संवारती है, और फिर किसी और को उड़ने के लिए आकाश देती है।
हम उसे हर साल नौ दिन तक पूजते हैं पर असली पूजा तब है, जब हम उसे उसके जीवन के हर रूप में पहचानें। उसकी चुप्पियों को सुनें, उसकी थकान को समझें, और उसकी सीमाओं को मानें।
क्योंकि हर स्त्री अपने भीतर एक दुर्गा लिए चलती है। वह देवी है इसलिए नहीं कि वह पूजनीय है,
बल्कि इसलिए कि वह टूटकर भी हर दिन एक नया रूप लेकर खड़ी हो जाती है।